सौजन्य से- मेरी बहन प्रगति श्रीवास्तव के फेसबुक एकाउंट से
Pragati Shrivastav
हम आम लङकियो की बात ही क्या है किसी पर आए संकट के वक्त में उसको छोड़ अपनी खाल बचाने में उस्ताद!
छिपकली या कॉकरोच से डरना तो हमारा जरूरी फैशन है.. और विशेष परिस्थिती मे चक्कर आना हमारे लिए एक गहने की तरह है...जैसे समय पर खाना नहीं खाया तो चक्कर..थोड़ी सी दौड़-धूप कर ली तो चक्कर..ज़रा सा खून निकल आया तो चक्कर..किसी और की चोट देख ली तो चक्कर..मतलब कभी भी चक्कर खाकर बेहोश होकर टपकने को तैयार रहती है.. मेरी कुछ सहेलियाँ उनकी पड़ोसिनें और मम्मियाँ इतने चक्कर खाती हैं कि कनपटी पर दो लगाकर पूछने का मन करता है "बे नौटंकियों! इत्ते चक्कर लाते कहाँ से हो रे?"फिर काफी मगजमारी करने पर जवाब मिला कि हर 2 डायलॉग में चक्कर खाती डेली सोप की कमसिन हिरोइनो से मिलता है ये टैलेंट और आपस में कॉम्पिटिशन चलता है डरने का चक्कर खाने का!..कभी भीड़ से दूर बैठकर जरा गौर से देखिएगा इन बालाओं को..किसी से कोई मतलब नही अपनी गिटपिट में मगन या फोन पर टंगी हुई अपने लिए जगह पाने की कोशिश में'तेजतर्रार' बनती हुईं किसी पर "ओ भैया लेडीज है दिखता नहीं क्या?उठो!" कहकर खीजती हुई सीट पाती हैं और फिर अपनी दुनिया में खो जाती हैं..गुरू! अब बस में या ट्रेन मे कोई छोटे बच्चे वाली,बुजुर्ग दादी या इनके दादाजी की उम्र का अधेड़ जैसे-तैसे खड़ा हो इनकी बला से इनको क्या...ऐसी महान महिलाओ से क्या उम्मिद करे किसी और को या अपने आप को बचाने की?अरे हाँ!सबसे बड़ी खूबी तो रह ही गई 'आज की हम सशक्त आधुनिकाओं' की वो ये कि सिधे साधे से दिखते पुरुषों पर हक से धौंस जमाती हैं लताङती हैं पर जैसे ही कोई छिछोरा बदमाश दिखता है मिमियाने लगती हैं,हमारी सारी हेकड़ी निकल जाती है बेबस नजरो से मदद ढूढने लगती हैं या चुपचाप रास्ता बदल लेती हैं तब गले से आवाज़ ही नहीं निकलती क्योकि हमारी हिम्मत केवल अपनों से या शरीफों से वह भी फ़क़त अपने लिए लड़ने तक सीमित है और जहाँ तकलीफ़ या चोट लगने कि उम्मिद हो या खतरा हो कोई भी रिस्क हो वहाँ पुरुषों को मदद के लिए जाना चाहिए हम तो नहीं जाएंगी!
एक लड़की होने के नाते हमे अफसोस है कि हम लड़कियाँ देश के नागरिकों के तौर पर निहायत ही गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करती हैं शायद हमारे भेजे में यह परिकल्पना कभी डाली ही नहीं जाती कि 'मैं और मेरा परिवार' से इतर भी हमारे कुछ दायित्व हैं। :(
#अनुभव
#क्षमासहित
Pragati Shrivastav
हम आम लङकियो की बात ही क्या है किसी पर आए संकट के वक्त में उसको छोड़ अपनी खाल बचाने में उस्ताद!
छिपकली या कॉकरोच से डरना तो हमारा जरूरी फैशन है.. और विशेष परिस्थिती मे चक्कर आना हमारे लिए एक गहने की तरह है...जैसे समय पर खाना नहीं खाया तो चक्कर..थोड़ी सी दौड़-धूप कर ली तो चक्कर..ज़रा सा खून निकल आया तो चक्कर..किसी और की चोट देख ली तो चक्कर..मतलब कभी भी चक्कर खाकर बेहोश होकर टपकने को तैयार रहती है.. मेरी कुछ सहेलियाँ उनकी पड़ोसिनें और मम्मियाँ इतने चक्कर खाती हैं कि कनपटी पर दो लगाकर पूछने का मन करता है "बे नौटंकियों! इत्ते चक्कर लाते कहाँ से हो रे?"फिर काफी मगजमारी करने पर जवाब मिला कि हर 2 डायलॉग में चक्कर खाती डेली सोप की कमसिन हिरोइनो से मिलता है ये टैलेंट और आपस में कॉम्पिटिशन चलता है डरने का चक्कर खाने का!..कभी भीड़ से दूर बैठकर जरा गौर से देखिएगा इन बालाओं को..किसी से कोई मतलब नही अपनी गिटपिट में मगन या फोन पर टंगी हुई अपने लिए जगह पाने की कोशिश में'तेजतर्रार' बनती हुईं किसी पर "ओ भैया लेडीज है दिखता नहीं क्या?उठो!" कहकर खीजती हुई सीट पाती हैं और फिर अपनी दुनिया में खो जाती हैं..गुरू! अब बस में या ट्रेन मे कोई छोटे बच्चे वाली,बुजुर्ग दादी या इनके दादाजी की उम्र का अधेड़ जैसे-तैसे खड़ा हो इनकी बला से इनको क्या...ऐसी महान महिलाओ से क्या उम्मिद करे किसी और को या अपने आप को बचाने की?अरे हाँ!सबसे बड़ी खूबी तो रह ही गई 'आज की हम सशक्त आधुनिकाओं' की वो ये कि सिधे साधे से दिखते पुरुषों पर हक से धौंस जमाती हैं लताङती हैं पर जैसे ही कोई छिछोरा बदमाश दिखता है मिमियाने लगती हैं,हमारी सारी हेकड़ी निकल जाती है बेबस नजरो से मदद ढूढने लगती हैं या चुपचाप रास्ता बदल लेती हैं तब गले से आवाज़ ही नहीं निकलती क्योकि हमारी हिम्मत केवल अपनों से या शरीफों से वह भी फ़क़त अपने लिए लड़ने तक सीमित है और जहाँ तकलीफ़ या चोट लगने कि उम्मिद हो या खतरा हो कोई भी रिस्क हो वहाँ पुरुषों को मदद के लिए जाना चाहिए हम तो नहीं जाएंगी!
एक लड़की होने के नाते हमे अफसोस है कि हम लड़कियाँ देश के नागरिकों के तौर पर निहायत ही गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करती हैं शायद हमारे भेजे में यह परिकल्पना कभी डाली ही नहीं जाती कि 'मैं और मेरा परिवार' से इतर भी हमारे कुछ दायित्व हैं। :(
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